बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-IIसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- काँगड़ा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. काँगड़ा की चित्रकला क्यों प्रसिद्ध है?
2. काँगड़ा चित्रशैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-
बाह्य रूप से समस्त पहाड़ी कला काँगड़ा के नाम से अभिहित की जाती है जिसका कारण यहाँ के राजाओं का अन्य पहाड़ी रियासतों पर प्रभुत्व तथा यहाँ के कुशल कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त ललित्यपूर्ण चित्र रचना है।
काँगडा की चित्रकला केवल कलात्मक गुणों के कारण से प्रसिद्ध नहीं है वरन हिमालय की वादियों की महकं वर्षा ऋतु की निर्मल फुहार नायक-नायिका का कलोल और सबसे ऊपर सही अर्थों में भारतीय संस्कृति एवं सौन्दर्य को मुखरित करने में यह कलम सक्षम है। विषयवस्तु विवेचन के रूप में काँगड़ा शैली की पृष्ठभूमि में वैष्णव मत का प्रभाव दिखाई देता है। वैष्णव मत में कृष्ण को आराध्य देव माना गया है।
वैष्णव मत से प्रेरणा लेकर ही कवि जयदेव विद्यापति आदि ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में जिन शब्द चित्रो को खींचा उससे प्रेरित होकर काँगडा के कलाकारों ने अपनी तूलिका द्वारा कृष्ण लीलाओं को विविध रूपों व रंगों में ढाला।
काँगड़ा चित्र शैली की पृष्ठभूमि
लघु चित्रों की परम्परा में सबसे अधिक मनमोहक एक चित्रशैली 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा घाटी में पनपी । कटोच राजवंश के महाराज संसार चन्द के संरक्षण ने इसे यौन के द्वार पर पहुँचा दिया। धौलाधार पर्वत की गोद में शान्ति से सोती हुई कांगड़ा घाटी में कभी चित्रकला का भी उत्कर्ष रहा होगा, सहसा यह विश्वास नहीं होता ।
इसकी खेलली हुई सरिताओं के किनारे व झूमते हुये वृक्षों की छाया में कांगड़ी प्रणयी कलम मोठे रंगीन अक्षर कागज पर न टांकती असम्भव था। फूलों से सुवासित यह घाटी मैदानों की अशान्ति व हलचलों से दूर ही रही।
इसने अपने तुषारित धवल आचल पर कभी भी मैल का दाग न लगने दिया । स्वभावतः इसकी कला एवं संस्कृति सदैव ही मौलिक रही।
कांगड़ा की लालित्यपूर्ण सरस चित्र - लहरी के लहराने की भी कथा बड़ी ही रोमांचक है। 1405 के आसपास कांगड़ा के राजा हरिचन्द अपने साथियों के साथ शिकार की तलाश में घूम रहे थे। दुर्भाग्यवश वे अकेले पड़ गये। और किसी कुयें में जा पड़े। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब वह कांगडा न लोटे तो उन्हें मरा जानकर रानियाँ सती हो गयीं व गद्दी पर इनके छोटे भाई करमचन्द बैठे।
करीब तीन सप्ताह बाद किसी राहगीर ने उन्हें उस गर्त से निकाला। जब उन्हें पूर्वोक्त बातों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने गुलेर इलाके में हरीपुर नगर के निर्माण की नींव डाली और यही पर ही इस चित्र - लहरी का बीजारोपण हुआ ।
इस स्थान के भौगोलिक रूप ने समय-समय पर बाटिका की इस नन्हीं सी बल्लरी को सींचा। मैदानों की खींच-तान, आक्रमण, औरंगजेबी मनोवृत्ति ने इस वल्लरी को परोक्ष रूप से सहारा दिया। बाद में यही 'कलम' पहाड़ बादशाह (संसार चन्द) की गोद में आ गई, उनके पुचकार व दुलार ने इस खूब खिलाया व संवारा। कांगड़ा की इस शान्त घाटी में कभी-कभी आक्रमणकारियों की कुछ हलचलें हो जाती थीं। इसका कारण वहाँ का किला था। उस समय एक उक्ति प्रसिद्ध थी- किला जिसका कांगड़ा उसका। राजाओं के पास यह किला स्थाई रूप से न रह पाता था। महमूद गजनवी इसके सौन्दर्य सम्पदा लूटकर गज़नी ले गया था। मुगल सिक्ख व गोरखे भी इसका पूर्व यौवन न लौटा सके।
कांगड़ा कलम का ऐतिहासिक कलावृत एवं कलाप्रणेता महाराजा संसारचन्द
संसारचन्द ही कांगड़ा कलम के एकमात्र प्रबल पोषक व उन्नायक रहे। इनका जन्म कांगड़ा जिले का पालमपुर तहसील के लाबागाँव के समीप एक गाँव में 1765 में हुआ था । इनके वंश के पूर्वज कोई सुशर्मन रहे जो महाभारत के युद्ध में कौरवों के साथ थे।
लेकिन ठीक-ठीक लेखा-जोखा महाराजा संसार चन्द के दादा घमंड चन्द (1751-74) से आरम्भ होता है जो 1751 गद्दी पर बैठे । संसार चन्द के पिता तेगचन्द (1774-75 ) केवल एक ही वर्ष राज्य करने पश्चात् गोलोकवासी हो गये। अपने स्वर्गवासी पिता बाद 1775 में कांगड़ा का किला भी दस वर्षीय संसार चन्द के हाथों आ गया।
काँगड़ा के चित्र विश्व भर में सुन्दर लघुचित्रों के रूप में विशेष माने जाते है। रेखा रूप रंग आदि द्वारा कांगड़ा कलाकार ने सजीव चित्रण किया है। इस शैली की प्रमुख विशेषताये निम्नवत् हैं-
काँगड़ा की इस सुकुमार कलम से रामायण महाभारत, दुर्गा सप्तशती गीतगोविन्द श्रीमद्भागवत हरिवंश और शिवपुराण पर आधारित बनाए गए। इसी चित्र शैली में सस्सी - पुन्नू बारहमासा रागमाला नायक नायिकाओं के अनेक नयनाभिराम चित्र बनाए
गए।
प्रकृति के सुरम्य रूप को यहाँ के चित्रों में एक स्नेहपूर्ण स्थान दिया गया है। प्रकृति की हरीतिमा और वृक्षों में छाया प्रकाश का अंकन दर्शक को आकृष्ट करता है।
कांगड़ी चित्रों से वास्तु की सजावट दर्शनीय है। पहाड़ियो ( undulating-hills) पर बस छोटे छोटे ( hamlets) गावों का अंकन बड़ा दर्शनीय है। श्वेत संगमरमरी वास्तु का अंकन कांगड़ा की अपनी चिर-परिचित विशेषता है। वास्तु के योग से अन्तराल में नीरसता नहीं आ पाई है वैसे भी पहाडियों के आकारों का प्रयोग कागड़ी चित्रकार ने बड़े बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से किया है।
नायिकाओं का सलोना चेहरा उस पर चंचल चितवन सीधी सी नाक मीठे से होठ सभी उसके रूप को गढ़ते है। इनके केश छरहरे बदन पर फर्श को चूमती पेशवाज बनी है तथा नायक को कुल्हेदार पगड़ी व जामा पहने हुये नायिकाओं के साथ देखा जा सकता है। पुरुषाकृति प्रायः भारी बदन की अंकित की हुई है।
कांगड़ा चित्रों में क्षितिज रेखा मुगल चित्रों के समान नीचे की ओर खिसक आई थी जबकि मेवाड व बहसोली में यह बहुत ऊपर बनी है।
चित्रों के हाशियों में छींटदार सज्जा भी प्रायः बनाई जाती थी। कांगड़ा चित्रशैली की विशेषताओं को डा० आनन्द कुमार स्वामी ने एक ही सारगर्भित वाक्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया है
“आकृतियाँ अधिक सजीव है रेखाओं में ओज प्रवाह है, स्त्री-आकृतियों का शारीरिक सौन्दर्य कोमल व छरहरे बदन का है।
कांगड़ा चित्रों में रंगों की दीप्ति व रमणीयता अद्वितीय रूप में प्रकट हुई है। मानवाकृतियों को छोड़ अन्य सभी आकृतियों में प्राय सफेद हरा व नीला रंग भरा गया हैं मानवाकृतियाँ प्राय गर्म या प्रखर रंगों में बनी है। रंगों के सम्बन्ध में जे० सी० फच ने ठीक ही कहा है।
"कांगड़ा चित्रकारों के वर्ण-संयोजन में ऊषाकाल ओर इन्द्रधनुष के रंग थे।"
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